महाभारत काल के स्तूप की व्याख्या करें ! Explain stupa during Mahabharata age
भारतीय
इस की एक अन्य विशेषता थी इसके बंधने में पाम नम हुए थे (म्)इसणा पष्ट नहीं दिमभूमी और विपर श्रीभग ६३ विभागा या कायों की व्यवस्थाक सम्राट के मामन के लिए पूर्वक प्रत्येक कक्षा पास्तम्भों से घिरी हुई एक दूसरे हुआ है। भागद के लिए एक-एक मरक्या रहता था। इसी एम शब्द प्रयुक्त
इसका दूसरा लक्षण उसे सिर पर उठाए हुए (वही १००३)(बी (३५२५) भारत्यापन मुद्रा में अपने भतक चार भुजाओं पर उठाए से जो इस कारण वा मंच (३२६१०१२) ज्ञात होती थी ये शरीर से महाकाय और पाव मारवा विकृत थे और उनके कान शुक्ति के उठे हुए थे (मुक्तिकही २६ में यह विशेषशा नहीं मिली जो पश्चिमी भारत के गृहों में पाई जाती है। इसमें सन्देह नही में उत्तीर्ण गृह के सामने भी युधिष्ठिर सभा के महका सादर्श था और मगध की वास्तुशिल्प काउन परमहरा प्रभाव पड़ा था जैसे शालीन गुफा का
सभापर्व के वर्णन में सबसे अधिक ध्यान महप की पोप पर दिया गया है। इसकी चमक सूर्य की परछाई चारों ओर फैलती थी यह दिव्य तेज आनी (प्रति प्रभया प्रभामय भारवरामप्रसी मानव दिव्या दिव्येन वर्षगा, वही ३१२१)। कोई भी पर्वाचीन लेखक इस प्रकार की पल्लवित शब्दावली में मांयकालीन प्रभा का वर्णन नहीं करता। उसका वत विपुल पर रूप सबके लिए प्रहका (प्रहरिणी) कारण था और ऐसा प्रभाव डालता मानो उसकी निर्माण सामग्री स्फटिक हो (स्फटिक यही २०१६) रनर ने राजप्रासाद के उत्तर र दक्षिण दो सरोवरों का उल्लेख किया है-"कुम्हराहार ग्राम के स्थान पर और उसके पश्चिम की एक पुराना तालाब सहक के दक्षिणी किनारे पर था। इसका नाम काजू इसके १०० गदक्षिण की पर दूसरा नमन है।" तालों की यह स्थिति बनानी वर्णन और भा बाती है। राजप्रासादों के विन्यास में भवन पौरका आवश्यक स्थान कमलों का नलिनी कहा है जिसमे सुन्दर पर और सौगन्धिक बिले हुए थे। नाना भांति के श की बना रहे थे (नाना जाताम् पिता शोभिताम्ही २६) सरोवर में मीडियाँ बनी थी (सू३२६) में स्पष्ट उल्लेख है कि उद्यान पोर पसरवर नाम के दो पोरया (ता सभामभितः वही ३।३१) । ये ताल पर उधान हंसकरवार विहमों से सुशोभित थे (हसकारण्डवयुतावाकोप विही २१३२) सभा के दोनों पोर शीतल छावा देने वाले पुष्पवत महावृक्ष से ऐ के निर्माण में सबको १४ महीने नगे यदि कभी इस प्रसाद पराया प्रसाद-मंडपकाउन किया जातो र के भवनोदान पर नलिनी या पुष्करिणी का भी ध्यान रखना आवश्यक है।
काष्ठमंत्र-मंडप के दक्षिण की घोर ७ कष्ट प्राप्त हुए हैं। उनकी लम्बाई ३० हाई ऊँचाई का सद्भुत उदाहरण कहा गया है। इनके एक के ऊपर रखे हुए फरकों से जुड़े है। इतने पुराने उभी तक बच्छी दशा में सुरक्षित धयों के जोड़ों की रेखा बहुत सच्ची है। उनके कोर-किनारे है। प्रत्येक म रखना इसी मुरमनिसामंजस्य के साथ की गई है कि भी काम में सा (१५५)
ऊपर के वर्णन से विदित होता है कि प्रासाद-विन्यास और पुरविल्यास दोनों ही प्राचीन काल से अनुसार ये तावक महाभारत और अर्थशास्त्र में उनका यथार्थ वर्णन है। वैदिक म केमिसले प्रासाद-मंडप बनाते थे। यूनानियों ने लिखा है कि नदियों के सट
पर स्थित नगरों में प्रायः काठशय का उपदान होना था और पार्टी की भी दशा श्री सभामंडप में शिलास्तंभों का प्रयोग नई प्रथा के रूप में हुया पर फर्जदारका ही फल थी। कुछ लोगों का विचार है कि यह सभामटप विदमी प्रभाव में बनाया गया. अर्थात कल्पना ईरान से की गई। इस मन की समीक्षा धागे की जायगी। हवामनी कला के भारी कला के यम्भों में प्राकाश-पाताल का अन्तर है ईरान के राजप्रासादों की अपेक्षा पाटनका राज प्रासाद कहीं अधिक उत्कृष्ट था ईलियन के अनुसार मा पर एकवटाना के किसी भांति पाटलिपुत्र के राजप्रासाद से स्पर्दा नहीं कर सकते थे।
अशोक के समय को मौर्य कला--प्रशोक ने मानवीय संबन्धों का एक नया प्रदर्शनी प्रजा में पोर विदेशियों के साथ स्थापित किया। उसकी व्यावहारिक बुद्धि बहुत बड़ी-बड़ी थी. जिसके द्वारा उसने अपने शासन को नए साँचे में ढाला, जिससे प्रजासों का अधिकतम हित हो सके। यह कुछ कम महत्व की बात न थी कि उसने वास्तु और स्थापत्य के नव-निर्माण का एक महान कार्यक्रम निश्चित किया। उसने समस्त देश या अपने बड़े राज्य (महालक विजित) पर ध्यान दिया यह शुद्ध हारली तक और गिरनार से मैसूर तक फैला हुया था। यह विस्तृत क्षेत्र उनकी भूवमी योजना के अन्तर्गत था । इसी कारण उसने अपने १४ शिलालेख साम्राज्य की सीमा के उचित स्थानों पर स्थापित किए। उसकी योजना का दूसरा अंग यह था कि बुद्ध के जीवन और बौद्धधर्म से संबन्धित स्थानों पर वह अपने भ की स्थापना करे। ये एकाश्मक स्तम्भ अशोककालीन कला के सबसे महत्वपूर्ण पर प्रभावशाली उदाहरण हूँ। उसने धर्म और संघ के चिरस्थायी स्मारकों के रूप में (चिलमितीके) इन्हें स्थापित किया 'शिलालेखों में वैसी ही स्तम्भलेखों में सम्राट् की विविध योजनायें परिलक्षित होती है। सम्राट ने बुद्ध के जन्मस्थान लुम्बिनी ग्राम की यात्रा की थी उसी यात्रा मार्ग को सूचित करने के लिए, पाटलिपुव, नोरिया नन्दनगढ़, लौरिया की घरराज, बबिरा और लुम्बिनी के स्तम्भ बनवाए। लुम्बिनी स्तम्भ के लेख में निश्चित रूप से लिखा है कि वहाँ बुद्ध का जन्म हुआ था। पास ही में दूसरे स्तम्भ लेख में लिखा है कि वहाँ पूर्वबुद्ध कनकमुनि का एक छोटा स्तूप था, जिसे सम्राट ने कई स्तूप का रूप दिया। उसने अपने रा संवत्सर के २०वें वर्ष में लुम्बिनी की तीर्थयात्रा की। कनकभूति का संस्कार उससे ६ वर्ष पूर्व कराया गया था (दुवे दुतीय बढिते) । लुम्बिनी में शिला स्तम्भ खड़ा करने के अतिरिक्त (जिलाधवंच उसपापिते) उसने पत्थर की एक बड़ी दीवार भी बनवाई (शिला-विगडभिया विकृत भित्ति) | उसी योजना में सारनाथ का सिंह स्तम्भ था जिसे सम्राट ने उस स्थान पर खड़ा किया जहाँ बद्ध ने प्रथम धर्मोपदेश या धर्मचक्रप्रवर्तन किया। में भी बढ़ के संबोधन पर शोक का एक बोधगया स्तम्भ या प्रशोक की दूसरी योजना यह थी कि मध्यदेश की सीमाओं पर और यहाँ के अनपदों की राजधानियों को सूचित करने के लिए स्तम्भों की प्रतिष्ठा करे। जैसे पचाल देश की राजधानी साकाश्य ( पर्वाचीन संकिसा ) में एक स्तम्भ खड़ा किया गया। कुरु जनपद की राजधानी मेरठ में दूसरा स्तम्भ लगाया गया। कुरुक्षेत्र या श्रीकष्ट जनपद की राजधानी रोपड़ में तीसरा स्तम्भ खड़ा किया। मथुरा में प्रतिष्ठान जाने वाले महामार्ग पर चेदि जनपद के लिए सांची में और वहाँ के महास्तूप के समीप बोला स्तम्भ बनवाया। कोशल जनपद की राजधानी श्रावस्ती में पचिव भबैठाया गया और जनपद की राजधानी कौशाम्बी में छठा स्तम्भ, काशी जनपद की राजधानी वाराणसी में बुद्ध के धर्मप्रवर्तन के स्थान में सातवाँ स्तम्भ खड़ा किया। इस प्रकार मध्यदेश की राजधानियों में और प्रायवत की सीमाओं पर सम्राट ने स्तम्भ-माला की योजना की। का
उसके सामने दो समस्याएँ और थी, पर्थात् वह इन स्तम्भों के द्वारा अपना कौन सा विचार या प्रादर्श प्रकट करें और उसे प्रकट करने के लिए इन स्तम्भों को क्या रूप दिया जाय दर्शन और शिल्प की दो महत्वपूर्ण समस्याएँ थी इन स्तम्भों का प्रष्ट निर्माण उसके चतुर शिल्पियों ने किया और बलिष्ठ की इन भारीको चुनार की केन्द्रीय खदान से दूर दूर ले गए थे स्तम्भ ५० फुट तक ऊंचे एक ही पत्थर में से काटकर बनाए गए थे। इनके पशु-शीर्षक और भी कठिनाई से गढ़ गए। किन्तु स्तम्भ-वाहका ने ऐसी युक्ति से इन्हें पहुंचाया कि कोई शनि नही पाने पाई अधिष्ठान के बिना ऊंची डंडी वाले स्तम्भों का प्रयोग चन्द्रगुप्त के सभा में लगभग ५० वर्ष पूर्व किया जा चुका था। किन्तु उनपर जो भव्य शोषक है, वे प्रशोक की मौलिक कल्पना है, क्योंकि चन्द्रगुप्त कालीन स्तम्भों पर ऐसे शीर्षक नहीं थे।
पर स्थित नगरों में प्रायः काठशय का उपदान होना था और पार्टी की भी दशा श्री सभामंडप में शिलास्तंभों का प्रयोग नई प्रथा के रूप में हुया पर फर्जदारका ही फल थी। कुछ लोगों का विचार है कि यह सभामटप विदमी प्रभाव में बनाया गया. अर्थात कल्पना ईरान से की गई। इस मन की समीक्षा धागे की जायगी। हवामनी कला के भारी कला के यम्भों में प्राकाश-पाताल का अन्तर है ईरान के राजप्रासादों की अपेक्षा पाटनका राज प्रासाद कहीं अधिक उत्कृष्ट था ईलियन के अनुसार मा पर एकवटाना के किसी भांति पाटलिपुत्र के राजप्रासाद से स्पर्दा नहीं कर सकते थे।
अशोक के समय को मौर्य कला--प्रशोक ने मानवीय संबन्धों का एक नया प्रदर्शनी प्रजा में पोर विदेशियों के साथ स्थापित किया। उसकी व्यावहारिक बुद्धि बहुत बड़ी-बड़ी थी. जिसके द्वारा उसने अपने शासन को नए साँचे में ढाला, जिससे प्रजासों का अधिकतम हित हो सके। यह कुछ कम महत्व की बात न थी कि उसने वास्तु और स्थापत्य के नव-निर्माण का एक महान कार्यक्रम निश्चित किया। उसने समस्त देश या अपने बड़े राज्य (महालक विजित) पर ध्यान दिया यह शुद्ध हारली तक और गिरनार से मैसूर तक फैला हुया था। यह विस्तृत क्षेत्र उनकी भूवमी योजना के अन्तर्गत था । इसी कारण उसने अपने १४ शिलालेख साम्राज्य की सीमा के उचित स्थानों पर स्थापित किए। उसकी योजना का दूसरा अंग यह था कि बुद्ध के जीवन और बौद्धधर्म से संबन्धित स्थानों पर वह अपने भ की स्थापना करे। ये एकाश्मक स्तम्भ अशोककालीन कला के सबसे महत्वपूर्ण पर प्रभावशाली उदाहरण हूँ। उसने धर्म और संघ के चिरस्थायी स्मारकों के रूप में (चिलमितीके) इन्हें स्थापित किया 'शिलालेखों में वैसी ही स्तम्भलेखों में सम्राट् की विविध योजनायें परिलक्षित होती है। सम्राट ने बुद्ध के जन्मस्थान लुम्बिनी ग्राम की यात्रा की थी उसी यात्रा मार्ग को सूचित करने के लिए, पाटलिपुव, नोरिया नन्दनगढ़, लौरिया की घरराज, बबिरा और लुम्बिनी के स्तम्भ बनवाए। लुम्बिनी स्तम्भ के लेख में निश्चित रूप से लिखा है कि वहाँ बुद्ध का जन्म हुआ था। पास ही में दूसरे स्तम्भ लेख में लिखा है कि वहाँ पूर्वबुद्ध कनकमुनि का एक छोटा स्तूप था, जिसे सम्राट ने कई स्तूप का रूप दिया। उसने अपने रा संवत्सर के २०वें वर्ष में लुम्बिनी की तीर्थयात्रा की। कनकभूति का संस्कार उससे ६ वर्ष पूर्व कराया गया था (दुवे दुतीय बढिते) । लुम्बिनी में शिला स्तम्भ खड़ा करने के अतिरिक्त (जिलाधवंच उसपापिते) उसने पत्थर की एक बड़ी दीवार भी बनवाई (शिला-विगडभिया विकृत भित्ति) | उसी योजना में सारनाथ का सिंह स्तम्भ था जिसे सम्राट ने उस स्थान पर खड़ा किया जहाँ बद्ध ने प्रथम धर्मोपदेश या धर्मचक्रप्रवर्तन किया। में भी बढ़ के संबोधन पर शोक का एक बोधगया स्तम्भ या प्रशोक की दूसरी योजना यह थी कि मध्यदेश की सीमाओं पर और यहाँ के अनपदों की राजधानियों को सूचित करने के लिए स्तम्भों की प्रतिष्ठा करे। जैसे पचाल देश की राजधानी साकाश्य ( पर्वाचीन संकिसा ) में एक स्तम्भ खड़ा किया गया। कुरु जनपद की राजधानी मेरठ में दूसरा स्तम्भ लगाया गया। कुरुक्षेत्र या श्रीकष्ट जनपद की राजधानी रोपड़ में तीसरा स्तम्भ खड़ा किया। मथुरा में प्रतिष्ठान जाने वाले महामार्ग पर चेदि जनपद के लिए सांची में और वहाँ के महास्तूप के समीप बोला स्तम्भ बनवाया। कोशल जनपद की राजधानी श्रावस्ती में पचिव भबैठाया गया और जनपद की राजधानी कौशाम्बी में छठा स्तम्भ, काशी जनपद की राजधानी वाराणसी में बुद्ध के धर्मप्रवर्तन के स्थान में सातवाँ स्तम्भ खड़ा किया। इस प्रकार मध्यदेश की राजधानियों में और प्रायवत की सीमाओं पर सम्राट ने स्तम्भ-माला की योजना की। का
उसके सामने दो समस्याएँ और थी, पर्थात् वह इन स्तम्भों के द्वारा अपना कौन सा विचार या प्रादर्श प्रकट करें और उसे प्रकट करने के लिए इन स्तम्भों को क्या रूप दिया जाय दर्शन और शिल्प की दो महत्वपूर्ण समस्याएँ थी इन स्तम्भों का प्रष्ट निर्माण उसके चतुर शिल्पियों ने किया और बलिष्ठ की इन भारीको चुनार की केन्द्रीय खदान से दूर दूर ले गए थे स्तम्भ ५० फुट तक ऊंचे एक ही पत्थर में से काटकर बनाए गए थे। इनके पशु-शीर्षक और भी कठिनाई से गढ़ गए। किन्तु स्तम्भ-वाहका ने ऐसी युक्ति से इन्हें पहुंचाया कि कोई शनि नही पाने पाई अधिष्ठान के बिना ऊंची डंडी वाले स्तम्भों का प्रयोग चन्द्रगुप्त के सभा में लगभग ५० वर्ष पूर्व किया जा चुका था। किन्तु उनपर जो भव्य शोषक है, वे प्रशोक की मौलिक कल्पना है, क्योंकि चन्द्रगुप्त कालीन स्तम्भों पर ऐसे शीर्षक नहीं थे।
पर स्थित नगरों में प्रायः काठशय का उपदान होना था और पार्टी की भी दशा श्री सभामंडप में शिलास्तंभों का प्रयोग नई प्रथा के रूप में हुया पर फर्जदारका ही फल थी। कुछ लोगों का विचार है कि यह सभामटप विदमी प्रभाव में बनाया गया. अर्थात कल्पना ईरान से की गई। इस मन की समीक्षा धागे की जायगी। हवामनी कला के भारी कला के यम्भों में प्राकाश-पाताल का अन्तर है ईरान के राजप्रासादों की अपेक्षा पाटनका राज प्रासाद कहीं अधिक उत्कृष्ट था ईलियन के अनुसार मा पर एकवटाना के किसी भांति पाटलिपुत्र के राजप्रासाद से स्पर्दा नहीं कर सकते थे।
अशोक के समय को मौर्य कला--प्रशोक ने मानवीय संबन्धों का एक नया प्रदर्शनी प्रजा में पोर विदेशियों के साथ स्थापित किया। उसकी व्यावहारिक बुद्धि बहुत बड़ी-बड़ी थी. जिसके द्वारा उसने अपने शासन को नए साँचे में ढाला, जिससे प्रजासों का अधिकतम हित हो सके। यह कुछ कम महत्व की बात न थी कि उसने वास्तु और स्थापत्य के नव-निर्माण का एक महान कार्यक्रम निश्चित किया। उसने समस्त देश या अपने बड़े राज्य (महालक विजित) पर ध्यान दिया यह शुद्ध हारली तक और गिरनार से मैसूर तक फैला हुया था। यह विस्तृत क्षेत्र उनकी भूवमी योजना के अन्तर्गत था । इसी कारण उसने अपने १४ शिलालेख साम्राज्य की सीमा के उचित स्थानों पर स्थापित किए। उसकी योजना का दूसरा अंग यह था कि बुद्ध के जीवन और बौद्धधर्म से संबन्धित स्थानों पर वह अपने भ की स्थापना करे। ये एकाश्मक स्तम्भ अशोककालीन कला के सबसे महत्वपूर्ण पर प्रभावशाली उदाहरण हूँ। उसने धर्म और संघ के चिरस्थायी स्मारकों के रूप में (चिलमितीके) इन्हें स्थापित किया 'शिलालेखों में वैसी ही स्तम्भलेखों में सम्राट् की विविध योजनायें परिलक्षित होती है। सम्राट ने बुद्ध के जन्मस्थान लुम्बिनी ग्राम की यात्रा की थी उसी यात्रा मार्ग को सूचित करने के लिए, पाटलिपुव, नोरिया नन्दनगढ़, लौरिया की घरराज, बबिरा और लुम्बिनी के स्तम्भ बनवाए। लुम्बिनी स्तम्भ के लेख में निश्चित रूप से लिखा है कि वहाँ बुद्ध का जन्म हुआ था। पास ही में दूसरे स्तम्भ लेख में लिखा है कि वहाँ पूर्वबुद्ध कनकमुनि का एक छोटा स्तूप था, जिसे सम्राट ने कई स्तूप का रूप दिया। उसने अपने रा संवत्सर के २०वें वर्ष में लुम्बिनी की तीर्थयात्रा की। कनकभूति का संस्कार उससे ६ वर्ष पूर्व कराया गया था (दुवे दुतीय बढिते) । लुम्बिनी में शिला स्तम्भ खड़ा करने के अतिरिक्त (जिलाधवंच उसपापिते) उसने पत्थर की एक बड़ी दीवार भी बनवाई (शिला-विगडभिया विकृत भित्ति) | उसी योजना में सारनाथ का सिंह स्तम्भ था जिसे सम्राट ने उस स्थान पर खड़ा किया जहाँ बद्ध ने प्रथम धर्मोपदेश या धर्मचक्रप्रवर्तन किया। में भी बढ़ के संबोधन पर शोक का एक बोधगया स्तम्भ या प्रशोक की दूसरी योजना यह थी कि मध्यदेश की सीमाओं पर और यहाँ के अनपदों की राजधानियों को सूचित करने के लिए स्तम्भों की प्रतिष्ठा करे। जैसे पचाल देश की राजधानी साकाश्य ( पर्वाचीन संकिसा ) में एक स्तम्भ खड़ा किया गया। कुरु जनपद की राजधानी मेरठ में दूसरा स्तम्भ लगाया गया। कुरुक्षेत्र या श्रीकष्ट जनपद की राजधानी रोपड़ में तीसरा स्तम्भ खड़ा किया। मथुरा में प्रतिष्ठान जाने वाले महामार्ग पर चेदि जनपद के लिए सांची में और वहाँ के महास्तूप के समीप बोला स्तम्भ बनवाया। कोशल जनपद की राजधानी श्रावस्ती में पचिव भबैठाया गया और जनपद की राजधानी कौशाम्बी में छठा स्तम्भ, काशी जनपद की राजधानी वाराणसी में बुद्ध के धर्मप्रवर्तन के स्थान में सातवाँ स्तम्भ खड़ा किया। इस प्रकार मध्यदेश की राजधानियों में और प्रायवत की सीमाओं पर सम्राट ने स्तम्भ-माला की योजना की। का
उसके सामने दो समस्याएँ और थी, पर्थात् वह इन स्तम्भों के द्वारा अपना कौन सा विचार या प्रादर्श प्रकट करें और उसे प्रकट करने के लिए इन स्तम्भों को क्या रूप दिया जाय दर्शन और शिल्प की दो महत्वपूर्ण समस्याएँ थी इन स्तम्भों का प्रष्ट निर्माण उसके चतुर शिल्पियों ने किया और बलिष्ठ की इन भारीको चुनार की केन्द्रीय खदान से दूर दूर ले गए थे स्तम्भ ५० फुट तक ऊंचे एक ही पत्थर में से काटकर बनाए गए थे। इनके पशु-शीर्षक और भी कठिनाई से गढ़ गए। किन्तु स्तम्भ-वाहका ने ऐसी युक्ति से इन्हें पहुंचाया कि कोई शनि नही पाने पाई अधिष्ठान के बिना ऊंची डंडी वाले स्तम्भों का प्रयोग चन्द्रगुप्त के सभा में लगभग ५० वर्ष पूर्व किया जा चुका था। किन्तु उनपर जो भव्य शोषक है, वे प्रशोक की मौलिक कल्पना है, क्योंकि चन्द्रगुप्त कालीन स्तम्भों पर ऐसे शीर्षक नहीं थे।
पर स्थित नगरों में प्रायः काठशय का उपदान होना था और पार्टी की भी दशा श्री सभामंडप में शिलास्तंभों का प्रयोग नई प्रथा के रूप में हुया पर फर्जदारका ही फल थी। कुछ लोगों का विचार है कि यह सभामटप विदमी प्रभाव में बनाया गया. अर्थात कल्पना ईरान से की गई। इस मन की समीक्षा धागे की जायगी। हवामनी कला के भारी कला के यम्भों में प्राकाश-पाताल का अन्तर है ईरान के राजप्रासादों की अपेक्षा पाटनका राज प्रासाद कहीं अधिक उत्कृष्ट था ईलियन के अनुसार मा पर एकवटाना के किसी भांति पाटलिपुत्र के राजप्रासाद से स्पर्दा नहीं कर सकते थे।
अशोक के समय को मौर्य कला--प्रशोक ने मानवीय संबन्धों का एक नया प्रदर्शनी प्रजा में पोर विदेशियों के साथ स्थापित किया। उसकी व्यावहारिक बुद्धि बहुत बड़ी-बड़ी थी. जिसके द्वारा उसने अपने शासन को नए साँचे में ढाला, जिससे प्रजासों का अधिकतम हित हो सके। यह कुछ कम महत्व की बात न थी कि उसने वास्तु और स्थापत्य के नव-निर्माण का एक महान कार्यक्रम निश्चित किया। उसने समस्त देश या अपने बड़े राज्य (महालक विजित) पर ध्यान दिया यह शुद्ध हारली तक और गिरनार से मैसूर तक फैला हुया था। यह विस्तृत क्षेत्र उनकी भूवमी योजना के अन्तर्गत था । इसी कारण उसने अपने १४ शिलालेख साम्राज्य की सीमा के उचित स्थानों पर स्थापित किए। उसकी योजना का दूसरा अंग यह था कि बुद्ध के जीवन और बौद्धधर्म से संबन्धित स्थानों पर वह अपने भ की स्थापना करे। ये एकाश्मक स्तम्भ अशोककालीन कला के सबसे महत्वपूर्ण पर प्रभावशाली उदाहरण हूँ। उसने धर्म और संघ के चिरस्थायी स्मारकों के रूप में (चिलमितीके) इन्हें स्थापित किया 'शिलालेखों में वैसी ही स्तम्भलेखों में सम्राट् की विविध योजनायें परिलक्षित होती है। सम्राट ने बुद्ध के जन्मस्थान लुम्बिनी ग्राम की यात्रा की थी उसी यात्रा मार्ग को सूचित करने के लिए, पाटलिपुव, नोरिया नन्दनगढ़, लौरिया की घरराज, बबिरा और लुम्बिनी के स्तम्भ बनवाए। लुम्बिनी स्तम्भ के लेख में निश्चित रूप से लिखा है कि वहाँ बुद्ध का जन्म हुआ था। पास ही में दूसरे स्तम्भ लेख में लिखा है कि वहाँ पूर्वबुद्ध कनकमुनि का एक छोटा स्तूप था, जिसे सम्राट ने कई स्तूप का रूप दिया। उसने अपने रा संवत्सर के २०वें वर्ष में लुम्बिनी की तीर्थयात्रा की। कनकभूति का संस्कार उससे ६ वर्ष पूर्व कराया गया था (दुवे दुतीय बढिते) । लुम्बिनी में शिला स्तम्भ खड़ा करने के अतिरिक्त (जिलाधवंच उसपापिते) उसने पत्थर की एक बड़ी दीवार भी बनवाई (शिला-विगडभिया विकृत भित्ति) | उसी योजना में सारनाथ का सिंह स्तम्भ था जिसे सम्राट ने उस स्थान पर खड़ा किया जहाँ बद्ध ने प्रथम धर्मोपदेश या धर्मचक्रप्रवर्तन किया। में भी बढ़ के संबोधन पर शोक का एक बोधगया स्तम्भ या प्रशोक की दूसरी योजना यह थी कि मध्यदेश की सीमाओं पर और यहाँ के अनपदों की राजधानियों को सूचित करने के लिए स्तम्भों की प्रतिष्ठा करे। जैसे पचाल देश की राजधानी साकाश्य ( पर्वाचीन संकिसा ) में एक स्तम्भ खड़ा किया गया। कुरु जनपद की राजधानी मेरठ में दूसरा स्तम्भ लगाया गया। कुरुक्षेत्र या श्रीकष्ट जनपद की राजधानी रोपड़ में तीसरा स्तम्भ खड़ा किया। मथुरा में प्रतिष्ठान जाने वाले महामार्ग पर चेदि जनपद के लिए सांची में और वहाँ के महास्तूप के समीप बोला स्तम्भ बनवाया। कोशल जनपद की राजधानी श्रावस्ती में पचिव भबैठाया गया और जनपद की राजधानी कौशाम्बी में छठा स्तम्भ, काशी जनपद की राजधानी वाराणसी में बुद्ध के धर्मप्रवर्तन के स्थान में सातवाँ स्तम्भ खड़ा किया। इस प्रकार मध्यदेश की राजधानियों में और प्रायवत की सीमाओं पर सम्राट ने स्तम्भ-माला की योजना की। का
उसके सामने दो समस्याएँ और थी, पर्थात् वह इन स्तम्भों के द्वारा अपना कौन सा विचार या प्रादर्श प्रकट करें और उसे प्रकट करने के लिए इन स्तम्भों को क्या रूप दिया जाय दर्शन और शिल्प की दो महत्वपूर्ण समस्याएँ थी इन स्तम्भों का प्रष्ट निर्माण उसके चतुर शिल्पियों ने किया और बलिष्ठ की इन भारीको चुनार की केन्द्रीय खदान से दूर दूर ले गए थे स्तम्भ ५० फुट तक ऊंचे एक ही पत्थर में से काटकर बनाए गए थे। इनके पशु-शीर्षक और भी कठिनाई से गढ़ गए। किन्तु स्तम्भ-वाहका ने ऐसी युक्ति से इन्हें पहुंचाया कि कोई शनि नही पाने पाई अधिष्ठान के बिना ऊंची डंडी वाले स्तम्भों का प्रयोग चन्द्रगुप्त के सभा में लगभग ५० वर्ष पूर्व किया जा चुका था। किन्तु उनपर जो भव्य शोषक है, वे प्रशोक की मौलिक कल्पना है, क्योंकि चन्द्रगुप्त कालीन स्तम्भों पर ऐसे शीर्षक नहीं थे।